मैं कहता आंखन देखी
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मित्र !
कारण तुम्हारे
आनन्द हमारे
हुए बेसहारे
लेकिन तुम्में क्या?
तुम्हारी तो यही जीवन सोच है
तुम्हारे जीवन मे नहीं कोई लोच है
तुम्हें तो जो पसन्द आए, करते हो
अन्धे होकर झोली अपनी भरते हो ।
मित्र !
समझो जीवन को
कलुषित न करो मन को
कहां ले जाओगे इस धन को?
लेकिन तुम मानो तब ना
तुम तो ऎसे ही जीवन को करते हो प्रणाम
तुम्हें चाहिए केवल निकालना अपना काम
तुम्हारे लिए तो यही करुणा है और यही धर्म
अन्यथा तुम करने से ना डरते बेवफाई कुकर्म ।
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