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हंसी से रोगो को दूर भगाएं

मैं कहता आंखन देखी
मैं कहता आंखन देखी
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समकलिन संत ओशो के अनुसार “हास्य एवं रुदन” दो ऎसी क्रियाएं हैं जिनमें हमारा अहंकार समाप्त हो जाता है। जन्मों से जिन भावावेगों को हमनें समाज की वजह से दबा दिया था उनका रेचन हंसने एवं रोने से हो जाता है। इससे हमारा शरीर व मन दोनों स्वस्थ बन जाते है। हंसने एवं रोने का रोगो को ठीक करके शरीर व मन को निरोग एवं स्वस्थ करने हेतु इस्तेमाल किया जा सकता है।
वर्तमान में हंसने को रोगो को ठीक करने हेतु एक पैथी के रुप मे लोग स्वीकार कर रहे हैं। लेकिन ओशो ने तो हंसने व रोने दोनो को ही शरीर व मन को निरोग रखने हेतु प्रयोग में लाकर इनका ध्यान में साधन के रुप में इस्तेमाल किया है यानि इन दोनो का आध्यात्मिक महत्व भी स्वीकार किया गया है। पहले से अधिकतर संत हंसने को पाप समझते थे।
मानव जीवन में हंसने का बहुत ही बडा महत्व है। प्रतिदिन खिलखिलाकर तथा ठहाके लगाकर हंसने से शरीर में रक्त का संचार तीव्र हो जाता है तथा फेफडों के हर हिस्से तक प्राणवायु पहुंचती है। इसी कारण बिमार, शरीर निरोग बन जाता है तथा निरोग शरीर भविष्य हेतु व्याधियों से बचा रहता है। इससे मानसिकता भी स्वस्था, रचनात्म्क एवं उमंग्पूर्ण रहती है। आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, प्राकृतिक, स्वमूत्र आदि चिकित्सा पद्धतियों में हंसने को भी “लाफिंग थिरेपी” के रुप में मान्यता मिल चुकी है।सर्वप्रथम विश्व स्तर भर में शायद ओशो ही एक ऎसे संत हैं जिन्होनें हंसने को स्वास्थ्यगत एवं आध्यात्मिक दोनों ही रुपों नें मान्यता दिलवाई। ओशो के ध्यान में जिसे वि मिस्टिक रोज के नाम से पुकारते हैं हंसने व रोने को ही स्थान दिया गया है। इस थिरैपी को लोकप्रिय बनाने हेतु अनेक संगठन व क्लब अपने-अपने स्तर पर कार्य कर रहे हैं। दिन-प्रतिदिन इन क्ल्बों व संगठनों के संख्या में वृद्धि हो रही है।लोग तनाव, चिन्ता, हताशा, कुंठा, घृणा, क्रोध तथा वैमनस्य से मानसिक व शारीरिक रुप से परेशान हो चुके हैं।आधुनिक चिकित्सा पद्ध्तियों के पास इसकी कोई चिकित्सा नहीं है तथा न कभी होगी। मानसिक रोगों के विशेषज्ञ, मनोवैज्ञानिक आदि भी मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं तो वे अन्य लोगों की चिकित्सा कैसे कर पाएंगे।
मनोवैज्ञानिकों में मानसिक रोग अन्य लोगों के बजाय अधिक हैं तथा डाक्टरों में शारिरीक व्याधियं बहुत अधिक हैं। इसके अलावा आधुनिक चिकित्सा विधियां केवल लक्षणों को दबाती है-बीमारी को ठीक नहीं करती। इनके अतिरिक्त प्रभावों से पूरी मनुष्यता परेशान है। ऎसे में योग, ध्यान, अध्यातम आयुर्वेद एवं लाफिंग थिरेपी का महत्व बढ जाता है। लोगो दो अपनी दिनचर्या मे ठहाके लगाकर हंसने को स्वीकार कर लेना चहिए।
पहले के लोग प्राकृतिक जीवन जीते थे अत: उनके जीवन में हंसी विद्यमान थी लेकेइन आधुनिक युग ने मनुष्य को जो एक महामारी दी है उसका नाम है हंसी का मनव जीवन से लुप्त हो जाना। यदि प्रतिदिन म्नुष्य सुबह व शाम को ४० मिनट खुलकर हंस ले तो अनेक बिमारियां विदा हो जाएं तथा नई बिमारियां पैदा ही न हों। हंसने से शरीर में इतनी उर्जा मिल जाती है कि वह उर्जा शरीर व मन में बिमारियां को होने ही नहीं देगी, तो अपने पेट को विभिन्न तरह की दवाइयों एवं खतरनांक रसायनों की प्रयोग्शाला न बनने दें। खूब हंसे व औरो को भी हंसाते रहें ताकि पूरी मनुष्यता निरोग व स्वस्थ हो सके। गंभीर व रोनी शक्ल का मनुष्य स्वयं तो परेशान व दु:खी होता ही है अन्य को भी दुखी व परेशान कर देता है।
मनोवैज्ञानिक तो स्वयं ही मानसिक रोगी होते हैं-वे क्या किसी कि चिकित्सा करेंगे? यदि हमें मानवता को स्वस्थ व निरोग करना है तो झूठी प्राथमिक्ताओं के स्थान पर हंसनें को जीवन में स्थान देना चाहिए। हरेक के लिए प्रतिदिन कुछ समय तक हंसना जरुरी होना चाहिए ताकि यह संसार जो आज रोगों की शरणास्थली एवं डाक्टरों की लूट का जरिया बन चुका है-सब हेतु एश्वर्य व आनन्द देने वाला बन सकें।
हंसी संक्रामक होती है। चिकित्सा की इससे सरल, सस्ती, सुविधाजनक एवं उपयोगी थिरैपी अन्य कोइ नहीं है। हंसना अनुभवहीनता व अपरिपक्क्वता का चिन्ह नही है अपितु यह तो पूरी तरह धार्मिक एवं आध्यात्मिक है।

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