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धर्म-ध्वजाधरी ये माडर्न भगवान

मैं कहता आंखन देखी
मैं कहता आंखन देखी
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इस पृथ्वी ग्रह पर कोई काल नहीं रहा जबकि महान पुरुष न रहे हों। यहां सदैव महान पुरुष रहे हैं। संसार का संतुलन जब किसी भी पहलू से अस्त-वस्त होता है तो महान पुरुष उसे फिर से संतुलित करने का कार्य करते हैं। वे कभी भी वापसी में किसी प्रकार के शुल्क की मांग नहीं करते अपितु वे तो उन्हीं लोगों का धन्यवाद करते हैं जो उन्हें सेवा करने या उनकी बात सुनने का अवसर प्रदान करते हैं । सच्चे संत या महापुरुष नि:स्वार्थ व निष्काम भाव से बादलों के तरह मानव ही क्या पूरे प्राणीमात्र के तथा प्रकृति की सेवा करते हैं। दूसरों के दु:ख दूर करने में ही उन्हें आनंदाभूति होती है। लेकिन इसके साथ-साथ यह भी सत्य है कि ऎसे महापुरुषॊं के साथ उनका शोषण करने वाले तुच्छ स्वार्थी लोग भी बहुतायत से रह्ते हैं। ऎसे लोग प्रकृति के हर वस्तु का अपने स्वार्थ हेतु प्रयोग करते हैं। महापुरुषों को ये अपने अपने तुच्छ सांसारिक हितॊं हेतु सीढी बनाते हैं। भारत में इस समय ऎसे लोगो की भरमार है । सत्सगॊं के आयोजन, ध्यानशिविरॊं के वृहद व विस्तृत स्तर पर संचालन, सत्संगघरों व ध्यानशिविर में उमडती भीड., कथावाचकों के यहां राजनितिज्ञों के रैलियॊं की तरह भीड.का एकत्र होना, गुरुओं, बाबओं एवं महाराजाओं द्वारा आए दिन धर्मिक व आध्यात्मिक प्रवचनों से कुडालिनी को जागृत करने वाली भगवान के भरमार से ऎसा लगता है कि जैसे सब धर्ममय, साधनमय या योगमार्गी बन गए हैं। आध्यात्मिक खोजियों का युग फिर से लौट आया है तथा भारत फिर से योगगुरु बनने को है। लेकिन ऎसा कछ नहीं है। यह सब दिखाने भर को है।अनेक पाखडी, ढोंगी एवं चालाक तरह के लोग धर्म, अध्यात्म व योग के नाम पर लोगो को बेवकूफ बना रहे हैं। शब्दों के जाल में फंसाकर ऎसा एहसास करवाया जाता है कि जैसे कि अध्यात्मिक क्रांति का युग आ गया है तथा इस युग से सब लोग चुने हुए व आशिर्वाद प्राप्त हैं।वे सही गुरु के शरण में आ गये हैं। लोग ऎसे ही सत्संग घरों व ध्यानकक्ष की ईटॊं को घिसा-घिसा कर मर जाते हैं। लेकिन ध्यान, होश, साक्षी, साधना व जागरण के नाम पर उनके पास कुछ भी नही होता है। हां कोइ यदि प्रशन उठाए तो उसे नास्तिक पापी, दुष्टात्मा एवं भौतिकवादी कहकर समाज से बाहर कर दिया जाता है । यह है इन नकली व ढोगी धार्मिक तथा तथाकथित गुरुओं की पोपलीला।इसलिए और केवल इसलिए इतने गुरुओं, महात्माओं एवं सत्संग्घरों तथा ध्यानककक्षों के के बावजूद यह पृथ्वी ग्रह अधिक झगडालू, युद्धग्रस्त, कलहग्रस्त, तनाव्ग्रस्त अवं चिंताग्रस्त होता जा रहा है। पृथ्वीग्रह पर दु:ख व पीडाओं का बढना इन गुरुओं व महात्माओं की विफलता है। इनसे उत्तर मांगा जाना चाहिए । यह पूरे ग्रह का प्रश्न है और यह सब प्रपंच वास्तविक महापुरुषों के नाम पर रचा जा रहा है । नकली सिक्के असली सिक्कों के नाम पर चल रहे हैं। इसलिए असली महत्मा वैसे ही समाज से बहिस्कृत व निरादृत हो गए हैं जैसे नकली सिक्के असली सिक्कों को बाजर से बाहर कर देते है। इसलिए ये नकली व ढोंगी महात्मा तथा इनके अंधे अनुनायी किसी सच्चे संत के प्रकट होते ही उस पर टूट पडते है और और उसे समाप्त करने की कोशिश हैं।और वही महत्मा जब मर जाता है तो उसकी पूजा करनी शुरु कर देते हैं। यह भी उनके मालिक होनें की हमारी एक गंदी चाल है ।मृत के हम मालिक हो जाते है, जीवित के नहीं। सब मृत महात्माओं को हमनें हाथ के कठपुतली बनाया हुआ है।यह महापुरुषों के प्रति आदर नहीं बल्कि अपने अंहकार की तृप्ति है।उन्हें हम अपने कब्जे में करके बैठ जाते हैं।वे मृत भला कैसे विरोध करेंगे।जीवित होते तो विरोध करते । इस तरह से हम महापुरुषों से बदला ले रहे हैं जिन्होनें स्वयं को जाना है वही दूसरों की कुछ मदद कर सकता है।ये पाखंडी तथा लालची क्या किसी की मदद करेंगे।आज तो महापुरुषों के नाम पर यह शोषण तथा लूटपात चल रही है और इसी को धर्म का नाम दे दिया जाता है ।

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